देवी पूजा दिल्ली, ९.१०.१९९० अः जि हम लोग यहाँ शक्ति की पूजा करने के लिए एकत्रित हुए हैं। अभी तक अनेक संत साधूओं ने ऋषि मुनियों ने शक्ति के बारे में बहुत कुछ लिखा और बताया। और जो शक्ति का वर्णन वह अपने गद्य में नहीं कर पाये उसे उन्होंने पद्य में किया। और उस पर भी इसके बहुत से अर्थ भी जाने। लेकिन एक बात शायद हम लोग नहीं जानते कि हर मनुष्य के अन्दर ये सारी शक्तियाँ सुप्तावस्था में हैं और ये सारी शक्तियाँ मनुष्य अपने अन्दर जागृत कर सकता है। ये सुप्तावस्था की जो शक्तियाँ है उनका कोई अन्त नहीं, न ही उनका कोई अनुमान कोई दे सकता है क्योंकि ऐसे ही पैंतीस कोटी तो देवता आपके अन्दर विराजमान हैं । उसके अलावा न जाने कितनी शक्तियाँ उनको चला रही हैं, लेकिन इतना हम लोग समझ सकते हैं कि जो हमने आज आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त किया है तो उसमें जरूर कोई न कोई शक्तियों का कार्य हुआ। उस कार्य के बगैर आप आत्मसाक्षात्कार को नहीं प्राप्त कर सकते। ये आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करते वक्त हम लोग सोचते हैं सहज में हो गया। सहज के दो अर्थ हैं। एक तो सहज का अर्थ ये भी है कि आसानी से हो गया, सरलता से हो गया और होता है कि जिस तरह से एक जीवन्त क्रिया अपने आप हो जाती है उसी प्रकार आपने आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त किया। लेकिन ये जीवन्त क्रिया जो है इसके बारे में अगर आप सोचने लग जाए तो आपकी बुद्धि कुण्ठित हो जाएगी। समझ लीजिए अर्थ ये दूसरा ये आपने एक पेड़ देखा। इस पेड़ की ओर आप नज़र करिए तो आप ये सोचेंगे कि भाई, ये फलाना पेड़ है। लेकिन इस पेड़ को इसी रूप में, ऐसा ही, इतना ही ऊंचाई पर लाने वाली कौनसी शक्तियाँ हैं? किस शक्ति ने इसको यहाँ पर इस तरह से बनाया है कि जो वो अपनी सीमा में रहकर के और अपने स्वरूप, रूप, उसी के साथ बढ़ता है। फिर सबसे जो कमाल की चीज़ है वो मानव, मनुष्य जो बनाया गया है वो भी एक विशेष रूप से, एक विशेष विचार से बनाया गया है। और वो मनुष्य का जो भविष्य है वो उसे प्राप्त हो सकता है, उसको मिल सकता है पर उसकी पहली सीढ़ी है आत्मसाक्षात्कार। जैसे कि कोई दीप जलाना हो तो सबसे पहले ये है कि उसके अन्दर ज्योति लानी पड़ती है। उसी प्रकार एक बार आपके अन्दर ज्योति जागृत हो गई तो आप उसको फिर से प्रज्ज्वलित कर सकते हैं या उसको आप बढ़ा सकते हैं। पर प्रथम कार्य है कि ज्योति प्रज्ज्वलित हो। और उसके लिए आत्मसाक्षात्कार नितान्त आवश्यक है। किन्तु आत्मसाक्षात्कार पाते ही सारी ही शक्तियाँ जागृत नहीं हो सकती। इसलिए ये साधु-सन्तों ने और ऋषि-मुनियों ने व्यवस्था की है कि आप देवी की उपासना करें। लेकिन जो आदमी आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त नहीं है, उसको अधिकार नहीं है कि वो देवी की पूजा करे। बहुत से लोगों ने मुझे बताया कि वो यदि सप्तशती का कभी पाठ करे और उनका हवन करते हैं तो उनपे बड़ी आफ्तें आ जाती हैं और उनको बड़ी तकलीफ हो जाती है और वो बहुत कष्ट उठाते हैं। तो उनसे ये पूछना चाहिए कि आपने किससे करवाया? तो कहेंगे कि हमने सात ब्राह्मणों को बुलाया था। पर वो ब्राह्मण नहीं। जिन्होंने ब्रह्मा को जाना नहीं वो ब्राह्मण नहीं और ऐसे ब्राह्मणों से कराने से ही देवी रूष्ट हो गई और आपको तकलीफ हुई। तो आपके अन्दर एक बड़ा अधिकार है कि आप देवी की पूजा कर सकते हैं और साक्षात् में भी पूजा कर सकते हैं। ये अधिकार सबको नहीं है। अगर कोई कोशिश करे तो उसका उल्टा परिणाम हो सकता है। सबसे बड़ी चीज़ है कि शक्ति जो है वो जितनी ही आपको आरमदेही है, जितनी वो आपके सृजन की व्यवस्था करती है, जितनी वो आपके प्रति उदार और प्रेममर्ी है, उतनी ही वो क्रूर और क्रोधमयी है। कोई बीच का मामला नहीं है या तो अति उदार है और या तो अति क्रोधित है। बीच में कोई मामला चलता नहीं। वजह यह है कि जो लोग महादुष्ट है, राक्षस है। और जो संसार को नष्ट करने पे आमादा हैं, जो लोगों को भुलभुलैया में लगाये हुए हैं और कलियुग में अपने को अलग- अलग बता कर के कोई साधु बना है तो कोई पंडित बना हुआ है, कोई मन्दिरों में बैठा है, तो कोई मस्जिदों में बैठा है, कोई मुल्ला बना हुआ है, कोई पोप बना हुआ है, तो कहीं कोई पोलिटिशियन बना हुआ है, ऐसे अनेक-अनेक कपड़े परिधान कर के जो अपने को छिपा रहा है, जो कि राक्षसी वृत्ति का मनुष्य है, उसका नाश होना आवश्यक है। लेकिन ये जो नाश की शक्तियाँ हैं इसकी तरफ आपको नहीं जाना चाहिए। आप सिर्फ इच्छा मात्र करें और ये शक्तियाँ अपने ही आप कार्य कर लेगी। तो सारे संसार में जो ये चैतन्य बह रहा है ये उसी महामाया की शक्ति है। और इस महामाया की शक्ति से ही सारे कार्य होते हैं औय ये शक्ति सब चीज़ सोचती है, जानती है, सबको पूरी तरह से व्यवस्थित रूप से लाती है जिसे कहते हैं कि आयोजित कर लेती है। और सबसे बड़ी चीज़ है कि ये आप से प्रेम करती है। और इसका प्रेम निर्वाज्य है | इस प्रेम में कोई भी माँग नहीं सिर्फ देने की इच्छा है। आपको पनपाने की इच्छा है, आपको बढ़ाने की इच्छा है । आपकी भलाई की इच्छा है, लेकिन इसी के साथ-साथ जो चीजें कांटे बन कर के आपके मार्ग में रूकावट डालेंगे, आपके धर्म में खलल डालेंगे, या किसी भी तरह से आपको तंग करेंगे ऐसे लोगों का नाश करना अत्यावश्यक है। लेकिन उसके लिए आप अपनी शक्ति न लगाएं। आपको सिर्फ चाहिए कि आप उस शक्ति के लिए सिर्फ आह्वान करे देवी का और उनसे कहिए कि, 'ये जो अमानुष लोग हैं इनका आप नाश कर दीजिए।' ये तो पहली चीज़ हो गई। सो आपको छुट्टी मिल गई कि कोई भी आप पर अगर अत्याचार करे, कोई भी आपसे बुराई से बोले, कोई आपको सताये तो आप में एक और विशेष रूप से एक स्थिति है जिसमें आप निर्विचार हो जायें । तो सारी चीज़ को आप साक्षी रूप से देखना शुरू कर दें। एक नाटक के रूप में। जैसे अजीब पागल आदमी है मेरे पीछे पड़ा हुआ है इसको क्या करने का है? इसका पागलपन देखिए, उसका मनस्ताप देखिए, उसकी तकलीफें देखिए और आप उस पर हँसिये कि अजीब बेवकूफ है। उसके लिए आपको कोई तकलीफ उठाने की जरूरत नहीं । उसके लिए सिर्फ आपको आपका जो किला है वो निर्विचारिता उसमें जाना चाहिए। और निर्विचारिता में जाते ही आपकी जो कुछ भी संजोने वाली शक्तियाँ हैं, आनन्द देने वाली शक्तियाँ हैं, प्रेम देने वाली शक्तियाँ हैं, वो सब की सब समेट कर आपके अन्दर आ जाएंगी| लेकिन जब तक आप इन चीज़ों में उलझे रहेंगे और जब तक आप ये सोचते रहेंगे कि मैं कैसे इसका सर्वनाश कर दें, इसको मैं किस तरह से खत्म कर दें, इसमें मैं क्या इलाज कर लू? और इस तरह से आप षड़यन्त्र बनाते रहेंगे, तब तक आप सच्ची मानिए कि उसका असर आप पे होगा, उस पर नहीं। रामदास स्वामी ने कहा है कि, 'अल्प धारिष्ट पाये' माने आपका थोड़ासा जो धीरज है उसको परमात्मा देखता है, लेकिन आपके अन्दर इतनी ज्यादा शक्तियाँ हैं, इतनी ज्यादा शक्तियाँ हैं कि उनको पहले आप पूरी तरह से प्रफुल्लित करना चाहिए। अपने प्रति एक तरह का बड़ा आदर रखना चाहिए, उनको जानना चाहिए। अपने प्रति एक तरह का बड़ा आदर रखना चाहिए। अब ये शक्तियाँ नष्ट होती हैं। सहजयोगियों में भी जागती है फिर नष्ट हो जाती है, जागती हैं फिर नष्ट हो जाती है। उसकी क्या वजह है? एक बार जगी हुई शक्ति क्यों नष्ट होती है? जैसे कि एक मनुष्य में आज शक्ति है कि वो बड़ी भारी कला में निपुण हो गया। सहजयोग में अपने से बहुत लोग कला में निपुण हो गये, कला के बारे में जान गये, उनमें एक तरह की बड़ी चेतना आ गई, उनका सृजन बहुत बढ़ गया| लोग देख के कहते हैं कि वह एक कलाकार ऐसा है कि समझ में ही नहीं आता। पर फिर वो उसी कला में उलझ जाता है। फिर उसकी शोहरत हो गई, नाम हो गया, उसी में उलझता जाता है। वो उलझ जाता है इस चीज़ में तब फिर उसकी शक्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। क्योंकि उसकी शक्तियाँ भी उसमें उलझ जाती जब हैं। जैसे कि मैंने पहले भी बताया था कि किसी पेड़ के अन्दर बहुता हुआ उसका जो प्राण रस है वो घूम-घाम कर के वापस लौट जाता है। उसी प्रकार जो भी आपके अन्दर शक्तियाँ आज प्रवाहित हैं और जिन शक्तियों के कारण आप आज कार्यान्वित हैं वो सारी ही चीजें, आपको जानना चाहिए कि इस शक्ति का ही प्रादर्भाव है और उसमें आपको उलझने की कोई जरूरत नहीं। आप उसमें एक निमित्त मात्र हैं तो यह आपकी शक्तियाँ कभी भी दर्बल नहीं होंगी और कभी भी नष्ट नहीं होंगी। उसी प्रकार अनेक बार मैंने देखा है कि सहजयोगियों का चित्त जो है वो ऐसी चीज़ों में उलझते जाता है। किसी चीज़ से भी वो बड़प्पन में आ गए, किसी चीज़ से उन्होंने बहत प्रगति पा ली। आप जानते हैं कि बहुत से विद्यार्थी जो कि कक्षा में कुछ नहीं कर पाते थे प्रथम दर्जे में आने लग गए। सब कुछ बहुत अच्छा हो गया। तो फिर वो कभी सोचने लग जाएं 'वाह, हम तो कितने बड़े हो गए।' जैसे ही ये सोचना शुरू हो गया वैसे ही ये शक्तियाँ आपकी खत्म हो जाएंगी और गिरती जाएंगी| अब सोचना यह है कि हमें क्या करना है? जैसे समझ लीजिए किसी आदमी का एकदम बिजनैस बढ़ गया या उसको खूब रूपया मिलने लग गया या उसके पास कोई विशेष चीज़ आ गई तो उसे क्या करना चाहिए? उसे हर समय सतर्क रहना चाहिए और यही कहना चाहिए कि 'माँ, ये आप ही कर रहे हैं। हम कुछ नहीं कर रहे हैं। ये आप ही की शक्ति कार्यान्वित है। हम कुछ नहीं कर रहे हैं।' बहुत जरूरी है कि आप सतर्क रहें क्योंकि उसके बाद जब आपकी शक्तियाँ खत्म हो जाएगी तो आप खुद ही कहेंगे कि 'माँ, सब चीज़़ डूब गई, सब खत्म हो गया| ये कैसे ?' जो भी शक्ति कार्य कर रही है उसको कार्यान्तिव होने दें। जैसे एक पेड़ है समझ लीजिए उस पेड़ के पत्ते कैसे गिरते हैं। आपने सोचा है? उसमें बीच में एक बुच के जैसी जिसे कोर्क कहते हैं, बीच में आ जाती है। पत्ते और पेड़ के बीच में एक कोर्क आ जाती है। उसके बाद फिर शक्ति आती ही नहीं। तो वो गिर जाता है पत्ता। इसी प्रकार मनुष्य का भी होता है। | आज इसकी शक्ति एक महान शक्ति से जुड़ी है और वहाँ से वो उसे प्राप्त कर रहा है। लेकिन जैसे ही वो अपने को कुछ समझने लग जाए या उसके अहंकार में बैठ जाए या उसकी जो अनेक तरह की गतिविधियाँ हैं, जिस तरह की स्पर्धा आदि में उलझता जाए तो उसके बीच में एक दरार पड़ जाएगी और उस दरार के कारण वो मनुष्य फिर उसे प्राप्त नहीं कर सकता। जो उसने प्राप्त किया हुआ है। क्योंकि वो तो एक निमित्त मात्र था। लेकिन जो शक्ति अन्दर उसके अन्दर बह रही थी वो शक्ति ही बीच में से कट गई। जैसे कि अभी इसकी ( माइक) शक्ति कट जाए तो शायद मेरा लेक्चर न बंद हो, पर ऐसे हो सकता है। हमको एक बात को खूब अच्छे से जान लेना चाहिए कि हमारे अन्दर जो शक्तियाँ जागृत हुई हैं और जो कुछ भी हमारे अन्दर की विशेष स्वरूप के व्यक्तित्व को प्रकट करने वाली जो नई आभा हमें दिखाई दे रही है इस शक्ति को हमें रोकना नहीं चाहिए। इसके ऊपर हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि हम कुछ बहुत बड़े हो गए या हमने कुछ बहुत बड़ा पा लिया। दूसरी तरफ से ऐसा भी होता है कि जब यह शक्ति आपके अन्दर जागृत हो जाती है उस वक्त आपमें एक तरह का उदासीपन भी आ सकता है। इस तरह का कि अभी दूसरे साहब तो इतने पहुँच गए, हम तो वहाँ पहुँचे नहीं। उन्होंने ये कर लिया, हमने ये किया नहीं। और हर तरह से आदमी उलझते जाता है। और उस में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो छोटी -छोटी बातों पर ही अपने को दुःखी मानते हैं, बहुत छोटी बातों पर, जैसे आप सबको बैग मिला मुझको बैग नहीं मिला। गणपति में पुणे में हमें बड़े अजीब-अजीब अनुभव आये कि लोग आये, कहने लगे, 'माताजी, हमको इस चीज़ का डिब्बा दे दो।' मैंने कहा, 'भाई , ये भी कोई तरीका हुआ?' दूसरे ने कहा कि आपने मुझे इतना दिया लेकिन उसको नहीं दिया।' ये कोई बात हुई? उस मौज में और आनन्द में ये सब सोचने की बात ही नहीं है। छोटी-छोटी बात में वो दुःखी हो जाते हैं। फिर ऐसी जिसको बहुत बड़ी बात समझते हैं कि किसी की, समझ लीजिए पति ने विद्रोह कर दिया या किसी पति का रास्ता ठीक नहीं रहा तो उसकी पत्नी रोते बैठेगी। या किसी की पत्नी ठीक नहीं तो पति रोते बैठेगा। अरे भाई, आपकी कितनी बार शादियाँ हो चुकी पहले जन्म में। और अब इस जन्म में एक शादी हुई, चलो, इसको किसी तरह से खत्म करो। उसीके पीछे में आप लोग रात-दिन परेशान रहो कि मुझको ये दु:ख आ गया, मेरे बच्चे का ऐसा हो गया, मेरी बच्ची का ऐसा हो गया। उसका ऐसा हो गया, उसका वैसा हो गया। इसका कोई अन्त है? इसको कोई पार कर सकता है? क्योंकि इतनी छोटी सी चीज़ है कि वो तो पकड़ में ही नहीं आती। इतनी क्षुद्र बात है कि वो मेरी पकड़ ही में नहीं आती। कोई भी आएगा तो ऐसी छोटी-छोटी बातें मुझे बताते हैं, मुझे बड़ी हंसी आती है। पर मैं चुपचाप सुनती रहती हूँ। देखिए मैं कहती हैँ कि आप सहजयोगी हैं? सागर के जैसे तो आपका हृदय मैंने बना दिया और हिमालय के जैसा आपका मैंने मस्तिष्क बना दिया और आप ये क्या छुटर-पुटर बातें कर रहे हो कि जिसका कोई मतलब ही नहीं रहता। इसकी बात, उसकी बात, दुनियाभर की फालतू की बातें करना और जो सहज की बात है वो बहुत कम होती है। उसमें मौन लगता है। क्यों सहज में तो कुछ हमने ध्यान ही नहीं दिया। सहज में तो मौन हो जाता है। अभी मैंने कि पूना में लोग जरा कम आने लग गए हैं, ध्यान में, क्योंकि महाभारत शुरू हो गया है। वैसे मैंने तो सुना अभी तक देखा ही नहीं है महाभारत। जो एक देखा है वो ही काफी है। अब देखने की क्या जरूरत है? अब अपने को दूसरा महाभारत करने का है ? और वो महाभारत देखने का शौक है तो उसकी वीडियो फिल्म मंगा लेना, देख लेना लेकिन पूजा छोड़ कर के और आपका सेन्टर छोड़ कर के आप महाभारत देखते हैं तो आपकी वो शक्ति कहाँ दिखेगी? वो महाभारत में चली गई। महाभारत हुए तो हजारों वर्ष हो गए उसी के साथ वो भी खत्म हो गई। तो ये जो मनोरंजन पर भी लोगों का बड़ा ध्यान रहता है। किसी चीज़ से हमारा मनोरंजन हो। ऐसा ही हर एक चीज़ में मनुष्य उलझते जाता है। तो कोई भी चीज़ में अति में जाना ही सहज के विरोध में पड़ती है। जैसे अब संगीत का शौक है तो संगीत ही संगीत है। फिर ध्यान भी नहीं करने का। बस, संगीत में पड़े हैं। मनोरंजन है। फिर कविता में पड़ गए तो कविता में ही उलझ गए। कोई भी चीज़ में अतिशयता में जाना भी सहज के विरोध में जाता है। ये इस बात को आप गाँठ बाँध कर रख लें। और दूसरी चीज़ जो हमारी शक्तियाँ उनको सम्यक होना चाहिए तभी हमें सम्यक ज्ञान मिलेगा, माने संघटित ज्ञान। गर एक ही चीज़ के पीछे में आप पड़े रहे और एक ही चीज़ को आप देखते रहे तो आपको सम्यक ज्ञान नहीं हो सकता है। आपको एक चीज़ का ज्ञान होगा। अब जैसे मैंने देखा है कि बहुत सी स्त्रियां होती हैं, बड़ी पढ़ी लिखी होती हैं पर कभी अखबार नहीं पढ़ती उनको दुनिया में पता ही नहीं क्या हो रहा है। रहे आदमी लोग तो उनका ऐसा है कि उनको सिर्फ ये मालूम है कि कौनसा खाना अच्छा बनता है, किस के घर में अच्छा खाना बनता है। किसके घर जाना चाहिए अच्छा खाने के लिए। एक खाने के मामले में तो हिन्दुस्तानी बहुत ही ज्यादा उलझे हुए लोग हैं। बहुत ज्यादा। और औरतें भी ऐसी हैं कि बेवकूफ बनाने के लिए अच्छे-अच्छे खाने खिलाकर के उनको ठिकाने लगाती हैं। इसमें दोनों की शक्तियाँ उलझ जाती हैं, दोनों की। रात-दिन ये खाने के बारे में, मुझे आज ये खाने को चाहिए, मुझे आज ये खाने को चाहिए, मैं ये टाइम को खाऊंगा, मैं वो टाइम से खाऊंगा। ये करूंगा। उधर औरतें आदमियों को खुश करने के लिए वो ही धन्धे करती रहती हैं। उसमें औरतों की शक्ति भी नष्ट होती है। और आदमियों की भी शक्ति नष्ट होती है इसलिए, मैंने यह तरीका निकाला है कि सहजयोगियें को सबको खुद खाना बनाना आना चाहिए। अगर किसी ने कहा मुझे ये खाने को चाहिए तो आप ही बनाये। हालांकि उसके बाद सबको भूखा ही रहना पड़ेगा। पर कोई हर्ज नहीं। आपको कहना चाहिए अच्छा आपको ये चीज़ खानी है तो आप ही इसको बना दीजिए । तो बड़ा अच्छा रहेगा। जब आप बनाना शुरू करेंगे तब आप समझेंगे कि ये चीज़ क्या है। क्योंकि किसी भी चीज़ को टीका-टिप्पणी करनी तो बहत आसान चीज़ है। किसी चीज़ को अच्छा कहना, बुरा कहना बहत ही आसान चीज़ है। लेकिन वो खुद जब आप करने लगते हैं तो पता चलता है कि ये टीका-टिप्पणी हम जो कर रहे हैं ये बिल्कुल बेवकूफी है। क्योंकि हमें कोई अधिकार ही नहीं। तो इस कदर की छोटी- छोटी चीज़ों में भी लोग मुझे आ कर बतातेहैं। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। आप अब साधु हो गए हैं। आपके अन्दर सबसे बड़ी जो शक्ति आई है वो ये, आप कोशिश करके देखिए और मैं बात कहती हूँ उसकी प्रचीति आएगी कोशिश करके देखिए आप जमीन पे सो सकते हैं, आप रास्ते पर सो सकते हैं। आप दस-दस दिन भी भूखे रह जाए आपको भूख नहीं लगेगी। आप कैसा भी खाना है उसे खा लेंगे, आप कुछ नहीं कहेंगे। इसमें आप हमारे परदेस के सहजयोगियों ने बताया कि ब्रह्मपुरी में इन्तजाम सब ठीक नहीं रहा। लोगों का दिमाग ही खराब हो गया था। क्योंकि आप नहीं गए, तो बहुत तकलीफ हुई उनको खाने-पीने की और कुछ अच्छा नहीं लगा। ऐसा बताया। तो मैंने उन लोगों से जा कर पूछा कि, 'भाई , सबसे ज्यादा तुमको कहाँ मजा आया?' तो उन्होंने कहा, 'ब्रह्मपुरी में सबसे ज्यादा मजा आया। तो मेरी कुछ समझ में नहीं आया कि इतनी शिकायतें हुई, 'क्यों? ब्रह्मपुरी में क्या बात है?' तो कहने लगे कि, 'वहाँ कृष्णा बहती है। उसके किनारे में बैठो तो लगता है कि माँ जैसे आपकी धारा बह रही हो। वो सब यही बातें करते रहे । यहाँ ये लोग खाने-पीने की सोचते हैं। इसलिए जब कभी-कभी लोग कहते हैं कि हम लोगों का समर्पण कम है तो उसकी वजह यह है कि हम लोग काफी उलझे हुए लोग हैं। हमारे अन्दर बहुत पुरानी परम्परा है। यहाँ अनेक साधु-संत हो गए, बड़े-बड़े लोग हो गये, बड़े-बड़े आदर्श हो गये और उन आदर्शों की वजह से हमें मालूम है कि अच्छाई क्या है। लेकिन उसके साथ ही साथ हमारे अन्दर एक तरह की ढोंगी वृत्ति आ गई। हम ढोंग भी कर सकते हैं। कोई भी आदमी अपने को राम कह सकता है। कोई भी आदमी अपने को भगवान कह सकता है, कोई भी आदमी अपने को सीताजी कह सकता है। ये ढोंगीपने की हमारे यहाँ बड़ी भारी शक्ति है। एक साहब ने मुझे कहा कि, 'देखिए वो तो भगवान हैं।' मैंने कहा, 'कैसे?' 'वो कहते हैं वो भगवान हैं।' मैंने कहा, 'उसको कहने में क्या लगता है? ऐसे कैसे कहेगा कोई कि मैं भगवान हैँ।' मैंने कहा, 'कह रहे हैं वो भगवान है लेकिन उसके कुछ तरीके होते हैं। जो आदमी फूल को नहीं सूंघ सकता वो भगवान कैसे हो सकता है?' 'हाँ, ये तो बात है पर वो ऐसा क्यों कह रहे थे ? पर वो ऐसा क्यों कह रहे हैं?' मैंने कहा, 'क्योंकि वो आप नहीं। वो ये ही नहीं समझ सकते कि लोग इतना सफेद झूठ इतने जोर से कह सकते हैं या किसी के लिए कहते हैं। पर वो उसको रूपया ही चाहिए न, ठीक है, वो रूपया लेता है लेकिन हमको तो वो आध्यात्मिकता देगा। तो क्या हर्ज है। हमें तो अध्यात्म लेना है, लेने दो रूपया, रूपये में क्या रखा है? रूपया दे दो उसको। रूपयों में क्या रखा हुआ है। अध्यात्म के पाने की बात है। अध्यात्म अगर वो हमको दे रहा है तो हम उसको रूपया दे रहे हैं। रूपये में तो कोई खास चीज़ होती नहीं। ये जो उनकी तैयारी आज हो गई है। वो हमारे अन्दर तैयारी अभी तक हो नहीं पाई। इसके लिए क्योंकि हमारे सामने आदर्श बहुत अच्छे हैं। महाभारत है, राम हैं, ये हैं, वो हैं । और हम उसी कीचड़ में बैठे हुए हैं।। अगर कोई कीड़ा कहे कि मैं कमल हो गया तो हो नहीं सकता और अगर उसको कमल बना भी दिया तो भी ढंग वही चलेगा । इसलिए समझ लेना चाहिए कि हमारे अन्दर ये जो इतनी ऊंची - ऊंची बातें हो गई और जिससे हम सारी तरफ से पूरी तरह से ढके हुए हैं और जिसके कारण हम लोग बहुत ऊंचे भी हैं, समझे कि हमें वो ही होना है जो हम देख रहे हैं, इस मामले में हमारे अन्दर आन्तरिक इच्छा हो, ऊपरी नहीं। अन्दर से लगना चाहिए। क्या हमने इसे प्राप्त किया? क्या हमने अपने ध्येय को प्राप्त किया ? क्या हमने इसे पाया है? उसे हमें पाना है इस मामले में ईमानदारी अपने साथ रखनी है। और जब तक ईमानदारी नहीं होगी तब तक शक्ति आपके साथ ईमानदारी नहीं कर सकती। ये आपका और अपना निजी सम्बन्ध है। अनेक तरह से आप अपने को पड़तालिये और देखिए हमारे अन्दर ये शक्तियाँ क्यों नहीं जागृत हो रहीं। क्यों नहीं हम इसे पा सकते। कारण हम अपने को, खुद ही अपने को एक तरह से काटे चले जा रहे हैं। हृदय से आपको महसूस होना चाहिए। हर एक तो किसी भी तरह की ढोंगी वृत्ति का सहजयोग में स्थान ही नहीं है। चीज़ को हृदय से पाना चाहिए। अपने अंतरात्मा से उसे जानना चाहिए। उसके लिए कोई भी ऊपरी चीज़ आवश्यक नहीं। कोई हैं कि मुस्करा कर बैठे रहेंगे, कोई जरूरत है मुस्कराने की? कोई है कि बड़े गम्भीर हो के बैठे रहेंगे, ये सब नाटक करने की कोई जरूरत नहीं। जो आपके अन्दर भाव है वो बाहर आ रहा है उसमें कौनसा नाटक करने की जरूरत है? उसमें कौनसी आफत करने की है? जो हमारे अन्दर भाव है वही हम प्रकटित कर रहे हैं। क्योंकि हमारे अन्दर जो भाव हैं वो इस शक्ति से बहता हुआ बाहर चला आ रहा है और उसको हम प्रकटित कर रहे हैं और जो लोग इस तरह से एक बात समझ लें कि हमें पूरी तरह से ईमानदारी से सहजयोग करना है तो धीरे-धीरे इसमें खिसकते जाएंगे। जिस तरह से वहाँ पर मैं लोगों में देखती हूँ आत्मसमर्पण है उनमें। मैं यह जरूर कहँगी कि उस आत्मसमर्पण के पीछे में एक बड़ी भारी कमाल है। और वो कमाल ये है कि वो सोचते हैं कि हमारा कल्याण सिर्फ आत्मिक ही होना चाहिए। हमारा आत्मिक कल्याण होना चाहिए। और कोई भी बात वो नहीं सोचते। सहजयोग के लाभ अनेक हैं। आप जानते हैं इससे तन्दुरुस्ती अच्छी हो जाएगी, आपको पैसे अच्छे मिल जाएंगे , आपकी नौकरी अच्छी हो जाएगी, आप का दिमाग ठीक हो जाएगा और दुनिया भर की चीजें जिन्हें कि आप संसारी कहते हैं, हो जाएंगी। और उसपे भी आप का नाम हो जाएगा, शोहरत हो जाएगी। जिनको कोई भी नहीं जानता है उनका भी नाम हो जाएगा। उन्हें लोग जानेंगे, सब कुछ होगा। लेकिन हमें क्या चाहिए? हमें तो अपनी आत्मिक उन्नति के सिवाए और कुछ नहीं चाहिए। हम सिर्फ आत्मिक उन्नति पा लें। जब वो आत्मिक उन्नति मनुष्य में हो जाती है तब मनुष्य सोचता ही नहीं ये सब चीज़ें उसके लिए व्यर्थ है | कोई भी चीज़ उसके लिए ऐसी नहीं है कि जिसके लिए वो लालायित हो या परेशान हो। इस कदर वो समर्थ हो जाता है। अगर है तो है, नहीं है तो नहीं है। मिले तो मिले, नहीं है तो नहीं। ये जब अपने अन्दर ये स्थिति आ जाए, मनुष्य इस स्थिति पे आ जाए, चाहिए कि सहजयोगियों ने अपने जीवन में कुछ प्राप्त किया। जब तक ये स्थिति प्राप्त नहीं होती तो आपकी नाव डांवाडोल चलती रहेगी। और आप हमेशा ही कभी इधर तो कभी उधर घूमते रहेंगे। तब सोचना पहली अपने को स्थापित करने की जो महान शक्ति आपके अन्दर है वो है श्रद्धा। उस श्रद्धा को हृदय से जानना चाहिए और उसकी मस्ती में रहना चाहिए, उसके मजे में आना चाहिए, उसके आनन्द में आना चाहिए, तो जो ये श्रद्धा की आल्हाददायिनी शक्ति है उस आह्वाद को लेते रहना चाहिए, उस खुमारी में रहना चाहिए। उस सुख में रहना चाहिए। और जब तक मनुष्य उस आह्लाद में पूरी तरह से घुल नहीं जाएगा उसके सारे जो कुछ भी प्रश्न हैं, समस्याएं हैं वो बने ही रहेंगे, बने ही रहेंगे। क्योंकि समस्याएं वगैरा सब माया है। ये सब चक्कर है। अगर किसी से पुछो कि भाई, तुम्हें क्या समस्या है? तो मुझे सौ रूपया मिलना चाहिए, मुझे पचास रुपये मिलते हैं। जब सौ रुपये मिले तो फिर क्या समस्या है? मुझे दो सौ रुपये मिलने चाहिए तो मुझे सौ ही रुपये मिले। वो तो खत्म ही नहीं हो रहा। फिर दूसरी क्या समस्या है कि मेरी बिवी ऐसी है। फिर तुम दूसरी बिवी कर लो, वो भी ऐसी है, तीसरी आई वो भी ऐसी है तो आपकी समस्या नहीं खत्म हो रही क्योंकि आप स्वयं इनको खत्म नहीं कर रहे। ये सबको खत्म करने का तरीका यही है कि अपनी श्रद्धा से आप अपने आत्मा में जो आनन्द है उस का रस लें और उसी रस के आनन्द में रहें आखिर सारी चीज़ है ही हमारे आनन्द के लिए, लेकिन जब तक हम उस रस को लेने की शक्ति को ही नहीं प्राप्त करते हैं तो क्या फायदा होगा? ये तो ऐसा ही हुआ कि एक मक्खी जा कर के बैठ गई फूल पर और कहेगी कि साहब मुझे तो कुछ मधु नहीं मिला। उसके लिए तो मधुकर होना चाहिए। जब तक आप मधुकर नहीं होंगे तो आपको मधु कैसे मिलेगा? गर आप मक्खी ही बने रहे तो आप इधर-उधर ही भिनकते रहेंगे । लेकिन जब आप स्वयं मधुकर बन जाएंगे तो आप कायदे की जगह जा करके जो आपको रस लेना है, रस ले कर के मजे में पेट भर कर के और आराम से आनन्द से रहेंगे। यही सबसे बड़ी चीज़़ सहजयोग में सीखने की है कि हमारा चित् पूरी तरह से एक चीज़ में डूबा रहना चाहिए। और वो है आत्मिक हमारी उन्नति होनी चाहिए। पर उस का मतलब यह नहीं कि पूरा समय अपने को बन्धन देते रहो या पूरा समय आँखें बंद करें उसकी कोई जरूरत नहीं । सर्वसाधारण तरीके से रोजमर्रा के जीवन को भी न कुछ बदलते हुए जैसे आप हैं वैसे ही उसी दशा में आपको चाहिए कि आप अपने अन्दर जो हृदय में आत्मा है उसके रस को प्राप्त करें। जब उसका रस झरना शुरू हो जाता है तो आप ही में कबीर बैठे हैं और आप ही में नानक बैठे हैं, और आप ही में सारे बड़े-बड़े संत साधु हो गए, तुकाराम, नामदेव, एकनाथ सब आप ही लोगों में बैठे हैं। और उनको बिचारों को, कोई बताने वाला भी नहीं था, उनके संरक्षण के लिए कोई नहीं था। ये सब आपको प्राप्त है। आप तो अच्छी छत्रछाया में बैठे हुए हैं। तो भी आप उस छत्रछाया में बैठ कर के एक अपनी भी छतरी खोल लेते हैं और उसके बारे में फिर चर्चा करते हैं, तो इससे तो आपकी शक्तियाँ कम हो ही जाएंगी। इस बार हमें गौर करना चाहिए कि हमारी कितनी शक्तियाँ हैं और हमारे अन्दर कितनी शक्तियाँ हमने देखी और वो कैसे कार्यान्वित हो रही हैं । आप जो चाहे सो करें। जो आप इच्छा करेंगे वो आपको मिलेगा लेकिन आपकी इच्छा ही बदल जाएगी। आपके तौरतरीके ही बदल जाएंगे जैसे आज अब कोई महाभारत देखने को नहीं रूकेगा। क्या सोचेगा? अरे बाप रे, आज माँ का इतना अच्छा समय बंधा हुआ है, माँ स्वयं आ रही है, पूजा का मौका है, सारी दुनिया से लोग दौड़े आएंगे। अब बाहर अमेरिका से, अभी में जा रही हूँ, उन्होंने कहा, 'एक दिवाली पूजा जरूर करना।' उसके लिए मेरे ख्याल से सारे ब्रह्माण्ड से लोग वहाँ पहुँच जाएंगे। लेकिन यहाँ कलकत्ते से भी लोगों को आने में मुश्किल हो जाती है। और साक्षात् हम बैठे हुए हैं। ऐसे-ऐसे लोग हैं कि जो बिल्कुल आसानी से आ सकते हैं। अपने काम के लिए दस मर्तबा दौड़ेंगे। लेकिन इसको नहीं समझते कि कितनी महत्वपूर्ण चीज़ है ? उसका महत्व नहीं समझ पाते क्योंकि श्रद्धा कम है। वो कहते हैं जब हम रिटायर्ड हो जाएंगे तब आएंगे। सुविधा के साथ। रविवार के दिन करिए पर एक दिन उससे पहले छुट्टी होनी चाहिए नहीं तो बाद में छुट्टी होनी चाहिए। अब ऐसी रोनी सूरत लोगों के लिए क्या सहजयोग है? ये घोड़े कहाँ तक जाएंगे? ये तो खच्चर भी नहीं। जो लोग इस तरह की बातें सोचते हैं वो सहजयोग में कहाँ तक पहुँचेंगे ये मेरी समझ में नहीं आता। सब सुविधा होनी चाहिए, शनिवार, इतवार होना चाहिए और उसमें से भी जैसे ही प्रोग्राम खत्म होगा हम भाग जाएंगे क्योंकि हमको कल दफ्तर में जाना है। तुम जाओगे कल भी सब ठीक हो जाएगा। लेकिन गर आप ऐसी जल्दबाजी करोगे तो खंडाला के घाट में आपको रोक लेंगे हम। लेकिन ये सब चूहल, ये सब शैतानियाँ हम कितनी भी करें लेकिन आपके अक्ल में जब तक ये चीज़ घुसेगी नहीं क्या फायदा? तो चाह रहे हैं कि किसी तरह से आपको रास्ते पर ले आएं। अब रास्ते पर लाने पर गर बार -बार आप लोग फिसल पड़े तो कितनी हमें मेहनत करनी पड़ेगी। और आपकी जो शक्तियाँ जागृत हो सकती हैं, जो अपने आप पनप सकती हैं बढ़ सकती हैं वो सारी शक्तियाँ कहाँ से कहाँ नष्ट हो जाएंगी? तो अपने को पहले आपको संवारना है। अपनी शक्तियों के गौरव में उतरना है और ये जानना है कि हमारे अन्दर कितनी शक्तियाँ हैं और हम कितनी शक्तियों को प्राप्त कर सकते हैं? हम कितने ऊंचे उठ सकते हैं। हम दूसरों को क्या-क्या लाभ दे सकते हैं। इतना भंडार हमारे अन्दर पड़ा हुआ है। सारा कुछ खुल गया, चाबी मिल गई अब खुल जाने पर सिर्फ उसमें से निकाल के लोगों को बाँटना है और उसका मजा उठाना है। आज ये जो शक्ति की पूजा हो रही है वो असल में, मैं चाहती हूँ कि आप जानिए कि आपकी ही शक्ति की पूजा होनी चाहिए। जिस से आप एक बड़े ईमानदार और एक सच्चे तरीके से श्रद्धामय हो जाए। साधु-संतों को कुछ कहना नहीं पड़ता था। वो मार खाएंगे, पीटे जाएंगे , उनको जहर देंगे , चाहे कुछ करिए उनकी लगन नहीं छूटती। अब आप लोगों को तो कनेक्शन लगा दिया लेकिन वो इतना ढीला कनेक्शन है कि बार-बार लगाना पड़ता है। फिर से किसी बात से छूट जाता है। फिर से किसी बात से लगाना पड़ता है, सो अब सोचना यह है आपको कि अपने अन्दर की सारी ही शक्तियाँ हमें जागृत करनी है तो फिर कोई कमी नहीं रह जाएगी। कोई आपके सामने प्रश्न ही नहीं रह जाएंगे| इन शक्तियों का जागृत करना बहुत आसान है। एक ही बात है कि आपकी लगन होनी चाहिए। जिसको लगन हो जाएगी, जो पूरी तरह से लगन से सहजयोग में उतरेगा और जिसका जी हमेशा सहजयोग में ही खींचा रहेगा, उधर ही ध्यान रहेगा उसका तो क्षेम हो ही जाएगा। पर पहले योग घटित | होना चाहिए और आधा-अधूरा योग किसी काम का नहीं। न इधर के रहे न उधर के रहे। ऐसी हालत हो जाएगी। एक छोटे से बीज में हजारों वृक्ष निर्माण करने की शक्ति है। तो आप तो ऐसे हजारों वृक्षों के मालिक मनुष्य हैं। और उनमें से हजारों लोगों को शक्तिशाली बनाने की शक्ति आपके अन्दर है लेकिन गर इस बीज का अंकुर निकालने के बाद गर आप रास्ते पे फेंक दीजिए और उसकी परवाह न करें और इसका गर पेड़ नहीं हुआ तो इसकी शक्ति कुंठित हो जाएगी। तो अपने लिए पूरी तरह से आप इसका अंदाज करे कि हम क्या हैं और हम क्या कर रहे हैं? और कहाँ तक हम पहुँच सकते हैं? इससे आपस के झगड़े छोटी-छोटी क्षुद्र बातें ऐसी चीजें जो कि रास्ते पर के भी लोग न करे, असभ्यता ये तो अपने आप से ही ढ़ह जाएगी। वो तो बचने ही नहीं वाली। लेकिन आपका जो स्वयं सुन्दर स्वरूप है वो निखर आएगा। और लोग कहेंगे कि ये एक शक्तिशाली मनुष्य खड़ा हुआ है। एक विशेष स्वरूप का आदमी खड़ा हुआ है। एक महान कोई व्यक्ति है। ऐसा अनूठा उसका सारा व्यवहार है। वो किसी से डरता नहीं, निर्भय है। जहाँ कहना है, कहता है, जहाँ नहीं कहना नहीं कहता। ये आ जाए, बाबा भी आ जाए फिर बाबा के नाना भी आ जाए सो नहीं हो सकता। जो आप हैं उस लायक वो लोग नहीं। वो नालायक हैं। जो नालायक हैं उन को छोड़ देना चाहिए। उससे क्यों झगड़ा करना? नालायक लोगों से झगड़ा करने की कोई जरूरत नहीं। 'नसीब आपके फुटे जो नालायक से शादी कर ली।' ऐसा सोचना चाहिए और नसीब आपके फूटे जो नालायक आपके माँ-बाप हैं। जो नालायक हैं उनको काहे को जबरदस्ती सहजयोग में लाना और मेरी खोपड़ी पर लादना कि ' माँ, इसको ठीक करो क्योंकि वो मेरी बिवी है, क्योंकि वो मेरा बाप है, क्योंकि मेरा बाबा, मेरा दादा।' मेरा उनसे कोई रिश्ता नहीं बनता। गर वो सहजयोग में नहीं हैं। तो उनको आप नालायकों को बाहर ही रखिए| जो लायक लोग हैं उनसे रोज दोस्ती करिए, उनके मज़े में रहिए। आपको जरूरत क्या है? पर यही बात हम लोग नहीं समझ पाते कि दुनियादारी ये रिश्ते ऐसे चलते रहते हैं। इसमें कुछ रखा नहीं, हाँ गर आपकी जिनके साथ में संगति है वो आपके साथ उठ सकते हैं, आपके साथ चल सकते हैं, आपके साथ बन सके तो ठीक है। और नहीं तो ऐसे नालायक लोगों को कोई जरूरत नहीं सहजयोग में लाने की। मैं देखती हूँ कि बहत ही नालायक लोग सहजयोग में कभी-कभी इस रिश्ते से आ जाते हैं और मेरा बड़ा सिर दर्द हो जाता है। आपकी लियाकत थी इसलिए आप आये और आप सहजयोग को प्राप्त हुए। आपको आशीर्वाद मिला। आपने बहुत कुछ पा लिया और आगे आप पा सकते हैं। और जो भिखारी भी हैं और उसकी झोली में छेद भी है उनको और देने से क्या फायदा? लो करेला नीम चढ़ा। ऐसे लोगों से रिश्ता रखने की आपको कोई जरूरत नहीं है। उनसे कोई बात करने की जरूरत नहीं। मतलब रखने की जरूरत नहीं है। उनको बकने दीजिए। गर उनका दिमाग ठीक हुआ तो वो आएंगे और सहजयोग में उतरेंगे। और नहीं हुए तो आप अपना दिमाग क्यों खराब करते हैं? उससे कोई फायदा नहीं है। ऐसे लोगों के पत्थर के जैसे सर होते हैं। उससे कोई फायदा नहीं होता, वो देख ही नहीं सकते। | तो आज से हम लोगों को सोचना है कि हम एक व्यक्ति हैं, स्वयं| और इसे हमने प्राप्त किया है अपने- अपने पूर्वजन्म के कर्मों से। क्योंकि हमने बहुत पुण्य किये थे । इसलिए हम आज इस स्थान पर बैठे हुए हैं और इससे भी ऊँचे स्थान पर हम बैठा सकते हैं और जा सकते हैं। तो अपने पीछे में बड़े-बड़े इस तरह के पत्थर लगा कर के आप समुद्र में मत कूदिए। आपको गर तैरना आता है तो मुक्त हो कर के तैरिए। उसका आनन्द उठाईये। और अपनी सारी शक्तियों से आप प्लावित होईए। आज मेरा अनन्त आशीर्वाद है कि आपके अन्दर की सुप्त सारी ही शक्तियाँ जागृत हों और धीरे-धीरे आप इसको महसूस करें। और उसकी जो अन्दर से प्रवाह की विशेष धारायें बहें उसके अन्दर आप आनन्द लूटें। यही मेरा आप सबको अनन्त आशीर्वाद है। ---------------------- 19901009_Devi Puja_Delhi_H_TC.pdf-page0.txt देवी पूजा दिल्ली, ९.१०.१९९० अः जि हम लोग यहाँ शक्ति की पूजा करने के लिए एकत्रित हुए हैं। अभी तक अनेक संत साधूओं ने ऋषि मुनियों ने शक्ति के बारे में बहुत कुछ लिखा और बताया। और जो शक्ति का वर्णन वह अपने गद्य में नहीं कर पाये उसे उन्होंने पद्य में किया। और उस पर भी इसके बहुत से अर्थ भी जाने। लेकिन एक बात शायद हम लोग नहीं जानते कि हर मनुष्य के अन्दर ये सारी शक्तियाँ सुप्तावस्था में हैं और ये सारी शक्तियाँ मनुष्य अपने अन्दर जागृत कर सकता है। ये सुप्तावस्था की जो शक्तियाँ है उनका कोई अन्त नहीं, न ही उनका कोई अनुमान कोई दे सकता है क्योंकि ऐसे ही पैंतीस कोटी तो देवता आपके अन्दर विराजमान हैं । उसके अलावा न जाने कितनी शक्तियाँ उनको चला रही हैं, लेकिन इतना हम लोग समझ सकते हैं कि जो हमने आज आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त किया है तो उसमें जरूर कोई न कोई शक्तियों का कार्य हुआ। उस कार्य के बगैर आप आत्मसाक्षात्कार को नहीं प्राप्त कर सकते। ये आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त करते वक्त हम लोग सोचते हैं सहज में हो गया। सहज के दो अर्थ हैं। एक तो सहज का अर्थ ये भी है कि आसानी से हो गया, सरलता से हो गया और होता है कि जिस तरह से एक जीवन्त क्रिया अपने आप हो जाती है उसी प्रकार आपने आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त किया। लेकिन ये जीवन्त क्रिया जो है इसके बारे में अगर आप सोचने लग जाए तो आपकी बुद्धि कुण्ठित हो जाएगी। समझ लीजिए अर्थ ये दूसरा ये आपने एक पेड़ देखा। इस पेड़ की ओर आप नज़र करिए तो आप ये सोचेंगे कि भाई, ये फलाना पेड़ है। लेकिन इस पेड़ को इसी रूप में, ऐसा ही, इतना ही ऊंचाई पर लाने वाली कौनसी शक्तियाँ हैं? किस शक्ति ने इसको यहाँ पर इस तरह से बनाया है कि जो वो अपनी सीमा में रहकर के और अपने स्वरूप, रूप, उसी के साथ बढ़ता है। फिर सबसे जो कमाल की चीज़ है वो मानव, मनुष्य जो बनाया गया है वो भी एक विशेष रूप से, एक विशेष विचार से बनाया गया है। और वो मनुष्य का जो भविष्य है वो उसे प्राप्त हो सकता है, उसको मिल सकता है पर उसकी पहली सीढ़ी है आत्मसाक्षात्कार। जैसे कि कोई दीप जलाना हो तो सबसे पहले ये है कि उसके अन्दर ज्योति लानी पड़ती है। उसी प्रकार एक बार आपके अन्दर ज्योति जागृत हो गई तो आप उसको फिर से प्रज्ज्वलित कर सकते हैं या उसको आप बढ़ा सकते हैं। पर प्रथम कार्य है कि ज्योति प्रज्ज्वलित हो। और उसके लिए आत्मसाक्षात्कार नितान्त आवश्यक है। किन्तु आत्मसाक्षात्कार पाते ही सारी ही शक्तियाँ जागृत नहीं हो सकती। इसलिए ये साधु-सन्तों ने और ऋषि-मुनियों ने व्यवस्था की है कि आप देवी की उपासना करें। लेकिन जो आदमी आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त नहीं है, उसको अधिकार नहीं है कि वो देवी की पूजा करे। बहुत से लोगों ने मुझे बताया कि वो यदि सप्तशती का कभी पाठ करे और उनका हवन करते हैं तो उनपे बड़ी आफ्तें आ जाती हैं और उनको बड़ी तकलीफ हो जाती है और वो बहुत कष्ट उठाते हैं। तो उनसे ये पूछना चाहिए कि आपने किससे करवाया? तो कहेंगे कि हमने सात ब्राह्मणों को बुलाया था। पर वो ब्राह्मण नहीं। जिन्होंने ब्रह्मा को जाना नहीं वो ब्राह्मण नहीं और ऐसे ब्राह्मणों से कराने से ही देवी रूष्ट हो गई और आपको तकलीफ हुई। तो आपके अन्दर एक बड़ा अधिकार है कि आप देवी की पूजा कर सकते हैं और साक्षात् में भी पूजा कर सकते हैं। ये अधिकार सबको नहीं है। अगर कोई कोशिश करे तो उसका उल्टा परिणाम हो सकता है। सबसे बड़ी चीज़ है कि शक्ति जो है वो जितनी ही आपको आरमदेही है, जितनी वो आपके सृजन की व्यवस्था करती है, जितनी वो आपके प्रति उदार और प्रेममर्ी है, उतनी ही वो क्रूर और क्रोधमयी है। कोई बीच का मामला नहीं है या तो अति उदार है और या तो अति क्रोधित है। बीच में कोई मामला चलता नहीं। वजह यह है कि जो लोग महादुष्ट है, राक्षस है। और जो संसार को नष्ट करने पे आमादा हैं, जो लोगों को भुलभुलैया में लगाये हुए हैं और कलियुग में अपने को अलग- अलग बता कर के कोई साधु बना है तो कोई पंडित बना हुआ है, कोई मन्दिरों में बैठा है, तो कोई मस्जिदों में बैठा है, कोई 19901009_Devi Puja_Delhi_H_TC.pdf-page1.txt मुल्ला बना हुआ है, कोई पोप बना हुआ है, तो कहीं कोई पोलिटिशियन बना हुआ है, ऐसे अनेक-अनेक कपड़े परिधान कर के जो अपने को छिपा रहा है, जो कि राक्षसी वृत्ति का मनुष्य है, उसका नाश होना आवश्यक है। लेकिन ये जो नाश की शक्तियाँ हैं इसकी तरफ आपको नहीं जाना चाहिए। आप सिर्फ इच्छा मात्र करें और ये शक्तियाँ अपने ही आप कार्य कर लेगी। तो सारे संसार में जो ये चैतन्य बह रहा है ये उसी महामाया की शक्ति है। और इस महामाया की शक्ति से ही सारे कार्य होते हैं औय ये शक्ति सब चीज़ सोचती है, जानती है, सबको पूरी तरह से व्यवस्थित रूप से लाती है जिसे कहते हैं कि आयोजित कर लेती है। और सबसे बड़ी चीज़ है कि ये आप से प्रेम करती है। और इसका प्रेम निर्वाज्य है | इस प्रेम में कोई भी माँग नहीं सिर्फ देने की इच्छा है। आपको पनपाने की इच्छा है, आपको बढ़ाने की इच्छा है । आपकी भलाई की इच्छा है, लेकिन इसी के साथ-साथ जो चीजें कांटे बन कर के आपके मार्ग में रूकावट डालेंगे, आपके धर्म में खलल डालेंगे, या किसी भी तरह से आपको तंग करेंगे ऐसे लोगों का नाश करना अत्यावश्यक है। लेकिन उसके लिए आप अपनी शक्ति न लगाएं। आपको सिर्फ चाहिए कि आप उस शक्ति के लिए सिर्फ आह्वान करे देवी का और उनसे कहिए कि, 'ये जो अमानुष लोग हैं इनका आप नाश कर दीजिए।' ये तो पहली चीज़ हो गई। सो आपको छुट्टी मिल गई कि कोई भी आप पर अगर अत्याचार करे, कोई भी आपसे बुराई से बोले, कोई आपको सताये तो आप में एक और विशेष रूप से एक स्थिति है जिसमें आप निर्विचार हो जायें । तो सारी चीज़ को आप साक्षी रूप से देखना शुरू कर दें। एक नाटक के रूप में। जैसे अजीब पागल आदमी है मेरे पीछे पड़ा हुआ है इसको क्या करने का है? इसका पागलपन देखिए, उसका मनस्ताप देखिए, उसकी तकलीफें देखिए और आप उस पर हँसिये कि अजीब बेवकूफ है। उसके लिए आपको कोई तकलीफ उठाने की जरूरत नहीं । उसके लिए सिर्फ आपको आपका जो किला है वो निर्विचारिता उसमें जाना चाहिए। और निर्विचारिता में जाते ही आपकी जो कुछ भी संजोने वाली शक्तियाँ हैं, आनन्द देने वाली शक्तियाँ हैं, प्रेम देने वाली शक्तियाँ हैं, वो सब की सब समेट कर आपके अन्दर आ जाएंगी| लेकिन जब तक आप इन चीज़ों में उलझे रहेंगे और जब तक आप ये सोचते रहेंगे कि मैं कैसे इसका सर्वनाश कर दें, इसको मैं किस तरह से खत्म कर दें, इसमें मैं क्या इलाज कर लू? और इस तरह से आप षड़यन्त्र बनाते रहेंगे, तब तक आप सच्ची मानिए कि उसका असर आप पे होगा, उस पर नहीं। रामदास स्वामी ने कहा है कि, 'अल्प धारिष्ट पाये' माने आपका थोड़ासा जो धीरज है उसको परमात्मा देखता है, लेकिन आपके अन्दर इतनी ज्यादा शक्तियाँ हैं, इतनी ज्यादा शक्तियाँ हैं कि उनको पहले आप पूरी तरह से प्रफुल्लित करना चाहिए। अपने प्रति एक तरह का बड़ा आदर रखना चाहिए, उनको जानना चाहिए। अपने प्रति एक तरह का बड़ा आदर रखना चाहिए। अब ये शक्तियाँ नष्ट होती हैं। सहजयोगियों में भी जागती है फिर नष्ट हो जाती है, जागती हैं फिर नष्ट हो जाती है। उसकी क्या वजह है? एक बार जगी हुई शक्ति क्यों नष्ट होती है? जैसे कि एक मनुष्य में आज शक्ति है कि वो बड़ी भारी कला में निपुण हो गया। सहजयोग में अपने से बहुत लोग कला में निपुण हो गये, कला के बारे में जान गये, उनमें एक तरह की बड़ी चेतना आ गई, उनका सृजन बहुत बढ़ गया| लोग देख के कहते हैं कि वह एक कलाकार ऐसा है कि समझ में ही नहीं आता। पर फिर वो उसी कला में उलझ जाता है। फिर उसकी शोहरत हो गई, नाम हो गया, उसी में उलझता जाता है। वो उलझ जाता है इस चीज़ में तब फिर उसकी शक्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। क्योंकि उसकी शक्तियाँ भी उसमें उलझ जाती जब हैं। जैसे कि मैंने पहले भी बताया था कि किसी पेड़ के अन्दर बहुता हुआ उसका जो प्राण रस है वो घूम-घाम कर के वापस लौट जाता है। उसी प्रकार जो भी आपके अन्दर शक्तियाँ आज प्रवाहित हैं और जिन शक्तियों के कारण आप आज कार्यान्वित हैं वो सारी ही चीजें, आपको जानना चाहिए कि इस शक्ति का ही प्रादर्भाव है और उसमें आपको उलझने की कोई जरूरत नहीं। आप उसमें एक निमित्त मात्र हैं तो यह आपकी शक्तियाँ कभी भी दर्बल नहीं होंगी और कभी भी नष्ट नहीं होंगी। उसी प्रकार अनेक बार मैंने देखा है कि सहजयोगियों का चित्त जो है वो ऐसी चीज़ों में उलझते जाता है। किसी चीज़ से भी वो बड़प्पन में आ गए, किसी चीज़ से उन्होंने बहत प्रगति पा ली। आप जानते हैं कि बहुत से विद्यार्थी जो कि कक्षा में कुछ नहीं कर पाते थे प्रथम दर्जे में आने लग गए। सब कुछ बहुत अच्छा हो गया। तो फिर वो कभी सोचने लग जाएं 'वाह, हम तो कितने बड़े हो गए।' जैसे ही ये सोचना शुरू हो गया वैसे ही ये शक्तियाँ आपकी खत्म हो जाएंगी और गिरती जाएंगी| अब सोचना यह है कि हमें क्या करना है? जैसे समझ लीजिए किसी आदमी का एकदम बिजनैस बढ़ गया या उसको खूब 19901009_Devi Puja_Delhi_H_TC.pdf-page2.txt रूपया मिलने लग गया या उसके पास कोई विशेष चीज़ आ गई तो उसे क्या करना चाहिए? उसे हर समय सतर्क रहना चाहिए और यही कहना चाहिए कि 'माँ, ये आप ही कर रहे हैं। हम कुछ नहीं कर रहे हैं। ये आप ही की शक्ति कार्यान्वित है। हम कुछ नहीं कर रहे हैं।' बहुत जरूरी है कि आप सतर्क रहें क्योंकि उसके बाद जब आपकी शक्तियाँ खत्म हो जाएगी तो आप खुद ही कहेंगे कि 'माँ, सब चीज़़ डूब गई, सब खत्म हो गया| ये कैसे ?' जो भी शक्ति कार्य कर रही है उसको कार्यान्तिव होने दें। जैसे एक पेड़ है समझ लीजिए उस पेड़ के पत्ते कैसे गिरते हैं। आपने सोचा है? उसमें बीच में एक बुच के जैसी जिसे कोर्क कहते हैं, बीच में आ जाती है। पत्ते और पेड़ के बीच में एक कोर्क आ जाती है। उसके बाद फिर शक्ति आती ही नहीं। तो वो गिर जाता है पत्ता। इसी प्रकार मनुष्य का भी होता है। | आज इसकी शक्ति एक महान शक्ति से जुड़ी है और वहाँ से वो उसे प्राप्त कर रहा है। लेकिन जैसे ही वो अपने को कुछ समझने लग जाए या उसके अहंकार में बैठ जाए या उसकी जो अनेक तरह की गतिविधियाँ हैं, जिस तरह की स्पर्धा आदि में उलझता जाए तो उसके बीच में एक दरार पड़ जाएगी और उस दरार के कारण वो मनुष्य फिर उसे प्राप्त नहीं कर सकता। जो उसने प्राप्त किया हुआ है। क्योंकि वो तो एक निमित्त मात्र था। लेकिन जो शक्ति अन्दर उसके अन्दर बह रही थी वो शक्ति ही बीच में से कट गई। जैसे कि अभी इसकी ( माइक) शक्ति कट जाए तो शायद मेरा लेक्चर न बंद हो, पर ऐसे हो सकता है। हमको एक बात को खूब अच्छे से जान लेना चाहिए कि हमारे अन्दर जो शक्तियाँ जागृत हुई हैं और जो कुछ भी हमारे अन्दर की विशेष स्वरूप के व्यक्तित्व को प्रकट करने वाली जो नई आभा हमें दिखाई दे रही है इस शक्ति को हमें रोकना नहीं चाहिए। इसके ऊपर हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि हम कुछ बहुत बड़े हो गए या हमने कुछ बहुत बड़ा पा लिया। दूसरी तरफ से ऐसा भी होता है कि जब यह शक्ति आपके अन्दर जागृत हो जाती है उस वक्त आपमें एक तरह का उदासीपन भी आ सकता है। इस तरह का कि अभी दूसरे साहब तो इतने पहुँच गए, हम तो वहाँ पहुँचे नहीं। उन्होंने ये कर लिया, हमने ये किया नहीं। और हर तरह से आदमी उलझते जाता है। और उस में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो छोटी -छोटी बातों पर ही अपने को दुःखी मानते हैं, बहुत छोटी बातों पर, जैसे आप सबको बैग मिला मुझको बैग नहीं मिला। गणपति में पुणे में हमें बड़े अजीब-अजीब अनुभव आये कि लोग आये, कहने लगे, 'माताजी, हमको इस चीज़ का डिब्बा दे दो।' मैंने कहा, 'भाई , ये भी कोई तरीका हुआ?' दूसरे ने कहा कि आपने मुझे इतना दिया लेकिन उसको नहीं दिया।' ये कोई बात हुई? उस मौज में और आनन्द में ये सब सोचने की बात ही नहीं है। छोटी-छोटी बात में वो दुःखी हो जाते हैं। फिर ऐसी जिसको बहुत बड़ी बात समझते हैं कि किसी की, समझ लीजिए पति ने विद्रोह कर दिया या किसी पति का रास्ता ठीक नहीं रहा तो उसकी पत्नी रोते बैठेगी। या किसी की पत्नी ठीक नहीं तो पति रोते बैठेगा। अरे भाई, आपकी कितनी बार शादियाँ हो चुकी पहले जन्म में। और अब इस जन्म में एक शादी हुई, चलो, इसको किसी तरह से खत्म करो। उसीके पीछे में आप लोग रात-दिन परेशान रहो कि मुझको ये दु:ख आ गया, मेरे बच्चे का ऐसा हो गया, मेरी बच्ची का ऐसा हो गया। उसका ऐसा हो गया, उसका वैसा हो गया। इसका कोई अन्त है? इसको कोई पार कर सकता है? क्योंकि इतनी छोटी सी चीज़ है कि वो तो पकड़ में ही नहीं आती। इतनी क्षुद्र बात है कि वो मेरी पकड़ ही में नहीं आती। कोई भी आएगा तो ऐसी छोटी-छोटी बातें मुझे बताते हैं, मुझे बड़ी हंसी आती है। पर मैं चुपचाप सुनती रहती हूँ। देखिए मैं कहती हैँ कि आप सहजयोगी हैं? सागर के जैसे तो आपका हृदय मैंने बना दिया और हिमालय के जैसा आपका मैंने मस्तिष्क बना दिया और आप ये क्या छुटर-पुटर बातें कर रहे हो कि जिसका कोई मतलब ही नहीं रहता। इसकी बात, उसकी बात, दुनियाभर की फालतू की बातें करना और जो सहज की बात है वो बहुत कम होती है। उसमें मौन लगता है। क्यों सहज में तो कुछ हमने ध्यान ही नहीं दिया। सहज में तो मौन हो जाता है। अभी मैंने कि पूना में लोग जरा कम आने लग गए हैं, ध्यान में, क्योंकि महाभारत शुरू हो गया है। वैसे मैंने तो सुना अभी तक देखा ही नहीं है महाभारत। जो एक देखा है वो ही काफी है। अब देखने की क्या जरूरत है? अब अपने को दूसरा महाभारत करने का है ? और वो महाभारत देखने का शौक है तो उसकी वीडियो फिल्म मंगा लेना, देख लेना लेकिन पूजा छोड़ कर के और आपका सेन्टर छोड़ कर के आप महाभारत देखते हैं तो आपकी वो शक्ति कहाँ दिखेगी? वो महाभारत में चली गई। महाभारत हुए तो हजारों वर्ष हो गए उसी के साथ वो भी खत्म हो गई। तो ये जो मनोरंजन पर भी लोगों का बड़ा 19901009_Devi Puja_Delhi_H_TC.pdf-page3.txt ध्यान रहता है। किसी चीज़ से हमारा मनोरंजन हो। ऐसा ही हर एक चीज़ में मनुष्य उलझते जाता है। तो कोई भी चीज़ में अति में जाना ही सहज के विरोध में पड़ती है। जैसे अब संगीत का शौक है तो संगीत ही संगीत है। फिर ध्यान भी नहीं करने का। बस, संगीत में पड़े हैं। मनोरंजन है। फिर कविता में पड़ गए तो कविता में ही उलझ गए। कोई भी चीज़ में अतिशयता में जाना भी सहज के विरोध में जाता है। ये इस बात को आप गाँठ बाँध कर रख लें। और दूसरी चीज़ जो हमारी शक्तियाँ उनको सम्यक होना चाहिए तभी हमें सम्यक ज्ञान मिलेगा, माने संघटित ज्ञान। गर एक ही चीज़ के पीछे में आप पड़े रहे और एक ही चीज़ को आप देखते रहे तो आपको सम्यक ज्ञान नहीं हो सकता है। आपको एक चीज़ का ज्ञान होगा। अब जैसे मैंने देखा है कि बहुत सी स्त्रियां होती हैं, बड़ी पढ़ी लिखी होती हैं पर कभी अखबार नहीं पढ़ती उनको दुनिया में पता ही नहीं क्या हो रहा है। रहे आदमी लोग तो उनका ऐसा है कि उनको सिर्फ ये मालूम है कि कौनसा खाना अच्छा बनता है, किस के घर में अच्छा खाना बनता है। किसके घर जाना चाहिए अच्छा खाने के लिए। एक खाने के मामले में तो हिन्दुस्तानी बहुत ही ज्यादा उलझे हुए लोग हैं। बहुत ज्यादा। और औरतें भी ऐसी हैं कि बेवकूफ बनाने के लिए अच्छे-अच्छे खाने खिलाकर के उनको ठिकाने लगाती हैं। इसमें दोनों की शक्तियाँ उलझ जाती हैं, दोनों की। रात-दिन ये खाने के बारे में, मुझे आज ये खाने को चाहिए, मुझे आज ये खाने को चाहिए, मैं ये टाइम को खाऊंगा, मैं वो टाइम से खाऊंगा। ये करूंगा। उधर औरतें आदमियों को खुश करने के लिए वो ही धन्धे करती रहती हैं। उसमें औरतों की शक्ति भी नष्ट होती है। और आदमियों की भी शक्ति नष्ट होती है इसलिए, मैंने यह तरीका निकाला है कि सहजयोगियें को सबको खुद खाना बनाना आना चाहिए। अगर किसी ने कहा मुझे ये खाने को चाहिए तो आप ही बनाये। हालांकि उसके बाद सबको भूखा ही रहना पड़ेगा। पर कोई हर्ज नहीं। आपको कहना चाहिए अच्छा आपको ये चीज़ खानी है तो आप ही इसको बना दीजिए । तो बड़ा अच्छा रहेगा। जब आप बनाना शुरू करेंगे तब आप समझेंगे कि ये चीज़ क्या है। क्योंकि किसी भी चीज़ को टीका-टिप्पणी करनी तो बहत आसान चीज़ है। किसी चीज़ को अच्छा कहना, बुरा कहना बहत ही आसान चीज़ है। लेकिन वो खुद जब आप करने लगते हैं तो पता चलता है कि ये टीका-टिप्पणी हम जो कर रहे हैं ये बिल्कुल बेवकूफी है। क्योंकि हमें कोई अधिकार ही नहीं। तो इस कदर की छोटी- छोटी चीज़ों में भी लोग मुझे आ कर बतातेहैं। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। आप अब साधु हो गए हैं। आपके अन्दर सबसे बड़ी जो शक्ति आई है वो ये, आप कोशिश करके देखिए और मैं बात कहती हूँ उसकी प्रचीति आएगी कोशिश करके देखिए आप जमीन पे सो सकते हैं, आप रास्ते पर सो सकते हैं। आप दस-दस दिन भी भूखे रह जाए आपको भूख नहीं लगेगी। आप कैसा भी खाना है उसे खा लेंगे, आप कुछ नहीं कहेंगे। इसमें आप हमारे परदेस के सहजयोगियों ने बताया कि ब्रह्मपुरी में इन्तजाम सब ठीक नहीं रहा। लोगों का दिमाग ही खराब हो गया था। क्योंकि आप नहीं गए, तो बहुत तकलीफ हुई उनको खाने-पीने की और कुछ अच्छा नहीं लगा। ऐसा बताया। तो मैंने उन लोगों से जा कर पूछा कि, 'भाई , सबसे ज्यादा तुमको कहाँ मजा आया?' तो उन्होंने कहा, 'ब्रह्मपुरी में सबसे ज्यादा मजा आया। तो मेरी कुछ समझ में नहीं आया कि इतनी शिकायतें हुई, 'क्यों? ब्रह्मपुरी में क्या बात है?' तो कहने लगे कि, 'वहाँ कृष्णा बहती है। उसके किनारे में बैठो तो लगता है कि माँ जैसे आपकी धारा बह रही हो। वो सब यही बातें करते रहे । यहाँ ये लोग खाने-पीने की सोचते हैं। इसलिए जब कभी-कभी लोग कहते हैं कि हम लोगों का समर्पण कम है तो उसकी वजह यह है कि हम लोग काफी उलझे हुए लोग हैं। हमारे अन्दर बहुत पुरानी परम्परा है। यहाँ अनेक साधु-संत हो गए, बड़े-बड़े लोग हो गये, बड़े-बड़े आदर्श हो गये और उन आदर्शों की वजह से हमें मालूम है कि अच्छाई क्या है। लेकिन उसके साथ ही साथ हमारे अन्दर एक तरह की ढोंगी वृत्ति आ गई। हम ढोंग भी कर सकते हैं। कोई भी आदमी अपने को राम कह सकता है। कोई भी आदमी अपने को भगवान कह सकता है, कोई भी आदमी अपने को सीताजी कह सकता है। ये ढोंगीपने की हमारे यहाँ बड़ी भारी शक्ति है। एक साहब ने मुझे कहा कि, 'देखिए वो तो भगवान हैं।' मैंने कहा, 'कैसे?' 'वो कहते हैं वो भगवान हैं।' मैंने कहा, 'उसको कहने में क्या लगता है? ऐसे कैसे कहेगा कोई कि मैं भगवान हैँ।' मैंने कहा, 'कह रहे हैं वो भगवान है लेकिन उसके कुछ तरीके होते हैं। जो आदमी फूल को नहीं सूंघ सकता वो भगवान कैसे हो सकता है?' 'हाँ, ये तो बात है पर वो ऐसा क्यों कह रहे थे ? पर वो ऐसा क्यों कह रहे हैं?' मैंने कहा, 'क्योंकि वो आप नहीं। वो ये ही नहीं समझ सकते कि लोग इतना सफेद झूठ इतने जोर से कह सकते हैं या किसी के लिए कहते हैं। पर वो उसको रूपया ही चाहिए न, ठीक है, वो रूपया लेता 19901009_Devi Puja_Delhi_H_TC.pdf-page4.txt है लेकिन हमको तो वो आध्यात्मिकता देगा। तो क्या हर्ज है। हमें तो अध्यात्म लेना है, लेने दो रूपया, रूपये में क्या रखा है? रूपया दे दो उसको। रूपयों में क्या रखा हुआ है। अध्यात्म के पाने की बात है। अध्यात्म अगर वो हमको दे रहा है तो हम उसको रूपया दे रहे हैं। रूपये में तो कोई खास चीज़ होती नहीं। ये जो उनकी तैयारी आज हो गई है। वो हमारे अन्दर तैयारी अभी तक हो नहीं पाई। इसके लिए क्योंकि हमारे सामने आदर्श बहुत अच्छे हैं। महाभारत है, राम हैं, ये हैं, वो हैं । और हम उसी कीचड़ में बैठे हुए हैं।। अगर कोई कीड़ा कहे कि मैं कमल हो गया तो हो नहीं सकता और अगर उसको कमल बना भी दिया तो भी ढंग वही चलेगा । इसलिए समझ लेना चाहिए कि हमारे अन्दर ये जो इतनी ऊंची - ऊंची बातें हो गई और जिससे हम सारी तरफ से पूरी तरह से ढके हुए हैं और जिसके कारण हम लोग बहुत ऊंचे भी हैं, समझे कि हमें वो ही होना है जो हम देख रहे हैं, इस मामले में हमारे अन्दर आन्तरिक इच्छा हो, ऊपरी नहीं। अन्दर से लगना चाहिए। क्या हमने इसे प्राप्त किया? क्या हमने अपने ध्येय को प्राप्त किया ? क्या हमने इसे पाया है? उसे हमें पाना है इस मामले में ईमानदारी अपने साथ रखनी है। और जब तक ईमानदारी नहीं होगी तब तक शक्ति आपके साथ ईमानदारी नहीं कर सकती। ये आपका और अपना निजी सम्बन्ध है। अनेक तरह से आप अपने को पड़तालिये और देखिए हमारे अन्दर ये शक्तियाँ क्यों नहीं जागृत हो रहीं। क्यों नहीं हम इसे पा सकते। कारण हम अपने को, खुद ही अपने को एक तरह से काटे चले जा रहे हैं। हृदय से आपको महसूस होना चाहिए। हर एक तो किसी भी तरह की ढोंगी वृत्ति का सहजयोग में स्थान ही नहीं है। चीज़ को हृदय से पाना चाहिए। अपने अंतरात्मा से उसे जानना चाहिए। उसके लिए कोई भी ऊपरी चीज़ आवश्यक नहीं। कोई हैं कि मुस्करा कर बैठे रहेंगे, कोई जरूरत है मुस्कराने की? कोई है कि बड़े गम्भीर हो के बैठे रहेंगे, ये सब नाटक करने की कोई जरूरत नहीं। जो आपके अन्दर भाव है वो बाहर आ रहा है उसमें कौनसा नाटक करने की जरूरत है? उसमें कौनसी आफत करने की है? जो हमारे अन्दर भाव है वही हम प्रकटित कर रहे हैं। क्योंकि हमारे अन्दर जो भाव हैं वो इस शक्ति से बहता हुआ बाहर चला आ रहा है और उसको हम प्रकटित कर रहे हैं और जो लोग इस तरह से एक बात समझ लें कि हमें पूरी तरह से ईमानदारी से सहजयोग करना है तो धीरे-धीरे इसमें खिसकते जाएंगे। जिस तरह से वहाँ पर मैं लोगों में देखती हूँ आत्मसमर्पण है उनमें। मैं यह जरूर कहँगी कि उस आत्मसमर्पण के पीछे में एक बड़ी भारी कमाल है। और वो कमाल ये है कि वो सोचते हैं कि हमारा कल्याण सिर्फ आत्मिक ही होना चाहिए। हमारा आत्मिक कल्याण होना चाहिए। और कोई भी बात वो नहीं सोचते। सहजयोग के लाभ अनेक हैं। आप जानते हैं इससे तन्दुरुस्ती अच्छी हो जाएगी, आपको पैसे अच्छे मिल जाएंगे , आपकी नौकरी अच्छी हो जाएगी, आप का दिमाग ठीक हो जाएगा और दुनिया भर की चीजें जिन्हें कि आप संसारी कहते हैं, हो जाएंगी। और उसपे भी आप का नाम हो जाएगा, शोहरत हो जाएगी। जिनको कोई भी नहीं जानता है उनका भी नाम हो जाएगा। उन्हें लोग जानेंगे, सब कुछ होगा। लेकिन हमें क्या चाहिए? हमें तो अपनी आत्मिक उन्नति के सिवाए और कुछ नहीं चाहिए। हम सिर्फ आत्मिक उन्नति पा लें। जब वो आत्मिक उन्नति मनुष्य में हो जाती है तब मनुष्य सोचता ही नहीं ये सब चीज़ें उसके लिए व्यर्थ है | कोई भी चीज़ उसके लिए ऐसी नहीं है कि जिसके लिए वो लालायित हो या परेशान हो। इस कदर वो समर्थ हो जाता है। अगर है तो है, नहीं है तो नहीं है। मिले तो मिले, नहीं है तो नहीं। ये जब अपने अन्दर ये स्थिति आ जाए, मनुष्य इस स्थिति पे आ जाए, चाहिए कि सहजयोगियों ने अपने जीवन में कुछ प्राप्त किया। जब तक ये स्थिति प्राप्त नहीं होती तो आपकी नाव डांवाडोल चलती रहेगी। और आप हमेशा ही कभी इधर तो कभी उधर घूमते रहेंगे। तब सोचना पहली अपने को स्थापित करने की जो महान शक्ति आपके अन्दर है वो है श्रद्धा। उस श्रद्धा को हृदय से जानना चाहिए और उसकी मस्ती में रहना चाहिए, उसके मजे में आना चाहिए, उसके आनन्द में आना चाहिए, तो जो ये श्रद्धा की आल्हाददायिनी शक्ति है उस आह्वाद को लेते रहना चाहिए, उस खुमारी में रहना चाहिए। उस सुख में रहना चाहिए। और जब तक मनुष्य उस आह्लाद में पूरी तरह से घुल नहीं जाएगा उसके सारे जो कुछ भी प्रश्न हैं, समस्याएं हैं वो बने ही रहेंगे, बने ही रहेंगे। क्योंकि समस्याएं वगैरा सब माया है। ये सब चक्कर है। अगर किसी से पुछो कि भाई, तुम्हें क्या समस्या है? तो मुझे सौ रूपया मिलना चाहिए, मुझे पचास रुपये मिलते हैं। जब सौ रुपये मिले तो फिर क्या समस्या है? मुझे दो सौ रुपये 19901009_Devi Puja_Delhi_H_TC.pdf-page5.txt मिलने चाहिए तो मुझे सौ ही रुपये मिले। वो तो खत्म ही नहीं हो रहा। फिर दूसरी क्या समस्या है कि मेरी बिवी ऐसी है। फिर तुम दूसरी बिवी कर लो, वो भी ऐसी है, तीसरी आई वो भी ऐसी है तो आपकी समस्या नहीं खत्म हो रही क्योंकि आप स्वयं इनको खत्म नहीं कर रहे। ये सबको खत्म करने का तरीका यही है कि अपनी श्रद्धा से आप अपने आत्मा में जो आनन्द है उस का रस लें और उसी रस के आनन्द में रहें आखिर सारी चीज़ है ही हमारे आनन्द के लिए, लेकिन जब तक हम उस रस को लेने की शक्ति को ही नहीं प्राप्त करते हैं तो क्या फायदा होगा? ये तो ऐसा ही हुआ कि एक मक्खी जा कर के बैठ गई फूल पर और कहेगी कि साहब मुझे तो कुछ मधु नहीं मिला। उसके लिए तो मधुकर होना चाहिए। जब तक आप मधुकर नहीं होंगे तो आपको मधु कैसे मिलेगा? गर आप मक्खी ही बने रहे तो आप इधर-उधर ही भिनकते रहेंगे । लेकिन जब आप स्वयं मधुकर बन जाएंगे तो आप कायदे की जगह जा करके जो आपको रस लेना है, रस ले कर के मजे में पेट भर कर के और आराम से आनन्द से रहेंगे। यही सबसे बड़ी चीज़़ सहजयोग में सीखने की है कि हमारा चित् पूरी तरह से एक चीज़ में डूबा रहना चाहिए। और वो है आत्मिक हमारी उन्नति होनी चाहिए। पर उस का मतलब यह नहीं कि पूरा समय अपने को बन्धन देते रहो या पूरा समय आँखें बंद करें उसकी कोई जरूरत नहीं । सर्वसाधारण तरीके से रोजमर्रा के जीवन को भी न कुछ बदलते हुए जैसे आप हैं वैसे ही उसी दशा में आपको चाहिए कि आप अपने अन्दर जो हृदय में आत्मा है उसके रस को प्राप्त करें। जब उसका रस झरना शुरू हो जाता है तो आप ही में कबीर बैठे हैं और आप ही में नानक बैठे हैं, और आप ही में सारे बड़े-बड़े संत साधु हो गए, तुकाराम, नामदेव, एकनाथ सब आप ही लोगों में बैठे हैं। और उनको बिचारों को, कोई बताने वाला भी नहीं था, उनके संरक्षण के लिए कोई नहीं था। ये सब आपको प्राप्त है। आप तो अच्छी छत्रछाया में बैठे हुए हैं। तो भी आप उस छत्रछाया में बैठ कर के एक अपनी भी छतरी खोल लेते हैं और उसके बारे में फिर चर्चा करते हैं, तो इससे तो आपकी शक्तियाँ कम हो ही जाएंगी। इस बार हमें गौर करना चाहिए कि हमारी कितनी शक्तियाँ हैं और हमारे अन्दर कितनी शक्तियाँ हमने देखी और वो कैसे कार्यान्वित हो रही हैं । आप जो चाहे सो करें। जो आप इच्छा करेंगे वो आपको मिलेगा लेकिन आपकी इच्छा ही बदल जाएगी। आपके तौरतरीके ही बदल जाएंगे जैसे आज अब कोई महाभारत देखने को नहीं रूकेगा। क्या सोचेगा? अरे बाप रे, आज माँ का इतना अच्छा समय बंधा हुआ है, माँ स्वयं आ रही है, पूजा का मौका है, सारी दुनिया से लोग दौड़े आएंगे। अब बाहर अमेरिका से, अभी में जा रही हूँ, उन्होंने कहा, 'एक दिवाली पूजा जरूर करना।' उसके लिए मेरे ख्याल से सारे ब्रह्माण्ड से लोग वहाँ पहुँच जाएंगे। लेकिन यहाँ कलकत्ते से भी लोगों को आने में मुश्किल हो जाती है। और साक्षात् हम बैठे हुए हैं। ऐसे-ऐसे लोग हैं कि जो बिल्कुल आसानी से आ सकते हैं। अपने काम के लिए दस मर्तबा दौड़ेंगे। लेकिन इसको नहीं समझते कि कितनी महत्वपूर्ण चीज़ है ? उसका महत्व नहीं समझ पाते क्योंकि श्रद्धा कम है। वो कहते हैं जब हम रिटायर्ड हो जाएंगे तब आएंगे। सुविधा के साथ। रविवार के दिन करिए पर एक दिन उससे पहले छुट्टी होनी चाहिए नहीं तो बाद में छुट्टी होनी चाहिए। अब ऐसी रोनी सूरत लोगों के लिए क्या सहजयोग है? ये घोड़े कहाँ तक जाएंगे? ये तो खच्चर भी नहीं। जो लोग इस तरह की बातें सोचते हैं वो सहजयोग में कहाँ तक पहुँचेंगे ये मेरी समझ में नहीं आता। सब सुविधा होनी चाहिए, शनिवार, इतवार होना चाहिए और उसमें से भी जैसे ही प्रोग्राम खत्म होगा हम भाग जाएंगे क्योंकि हमको कल दफ्तर में जाना है। तुम जाओगे कल भी सब ठीक हो जाएगा। लेकिन गर आप ऐसी जल्दबाजी करोगे तो खंडाला के घाट में आपको रोक लेंगे हम। लेकिन ये सब चूहल, ये सब शैतानियाँ हम कितनी भी करें लेकिन आपके अक्ल में जब तक ये चीज़ घुसेगी नहीं क्या फायदा? तो चाह रहे हैं कि किसी तरह से आपको रास्ते पर ले आएं। अब रास्ते पर लाने पर गर बार -बार आप लोग फिसल पड़े तो कितनी हमें मेहनत करनी पड़ेगी। और आपकी जो शक्तियाँ जागृत हो सकती हैं, जो अपने आप पनप सकती हैं बढ़ सकती हैं वो सारी शक्तियाँ कहाँ से कहाँ नष्ट हो जाएंगी? तो अपने को पहले आपको संवारना है। अपनी शक्तियों के गौरव में उतरना है और ये जानना है कि हमारे अन्दर कितनी शक्तियाँ हैं और हम कितनी शक्तियों को प्राप्त कर सकते हैं? हम कितने ऊंचे उठ सकते हैं। हम दूसरों को क्या-क्या लाभ दे सकते हैं। इतना भंडार हमारे अन्दर पड़ा हुआ है। सारा कुछ खुल गया, 19901009_Devi Puja_Delhi_H_TC.pdf-page6.txt चाबी मिल गई अब खुल जाने पर सिर्फ उसमें से निकाल के लोगों को बाँटना है और उसका मजा उठाना है। आज ये जो शक्ति की पूजा हो रही है वो असल में, मैं चाहती हूँ कि आप जानिए कि आपकी ही शक्ति की पूजा होनी चाहिए। जिस से आप एक बड़े ईमानदार और एक सच्चे तरीके से श्रद्धामय हो जाए। साधु-संतों को कुछ कहना नहीं पड़ता था। वो मार खाएंगे, पीटे जाएंगे , उनको जहर देंगे , चाहे कुछ करिए उनकी लगन नहीं छूटती। अब आप लोगों को तो कनेक्शन लगा दिया लेकिन वो इतना ढीला कनेक्शन है कि बार-बार लगाना पड़ता है। फिर से किसी बात से छूट जाता है। फिर से किसी बात से लगाना पड़ता है, सो अब सोचना यह है आपको कि अपने अन्दर की सारी ही शक्तियाँ हमें जागृत करनी है तो फिर कोई कमी नहीं रह जाएगी। कोई आपके सामने प्रश्न ही नहीं रह जाएंगे| इन शक्तियों का जागृत करना बहुत आसान है। एक ही बात है कि आपकी लगन होनी चाहिए। जिसको लगन हो जाएगी, जो पूरी तरह से लगन से सहजयोग में उतरेगा और जिसका जी हमेशा सहजयोग में ही खींचा रहेगा, उधर ही ध्यान रहेगा उसका तो क्षेम हो ही जाएगा। पर पहले योग घटित | होना चाहिए और आधा-अधूरा योग किसी काम का नहीं। न इधर के रहे न उधर के रहे। ऐसी हालत हो जाएगी। एक छोटे से बीज में हजारों वृक्ष निर्माण करने की शक्ति है। तो आप तो ऐसे हजारों वृक्षों के मालिक मनुष्य हैं। और उनमें से हजारों लोगों को शक्तिशाली बनाने की शक्ति आपके अन्दर है लेकिन गर इस बीज का अंकुर निकालने के बाद गर आप रास्ते पे फेंक दीजिए और उसकी परवाह न करें और इसका गर पेड़ नहीं हुआ तो इसकी शक्ति कुंठित हो जाएगी। तो अपने लिए पूरी तरह से आप इसका अंदाज करे कि हम क्या हैं और हम क्या कर रहे हैं? और कहाँ तक हम पहुँच सकते हैं? इससे आपस के झगड़े छोटी-छोटी क्षुद्र बातें ऐसी चीजें जो कि रास्ते पर के भी लोग न करे, असभ्यता ये तो अपने आप से ही ढ़ह जाएगी। वो तो बचने ही नहीं वाली। लेकिन आपका जो स्वयं सुन्दर स्वरूप है वो निखर आएगा। और लोग कहेंगे कि ये एक शक्तिशाली मनुष्य खड़ा हुआ है। एक विशेष स्वरूप का आदमी खड़ा हुआ है। एक महान कोई व्यक्ति है। ऐसा अनूठा उसका सारा व्यवहार है। वो किसी से डरता नहीं, निर्भय है। जहाँ कहना है, कहता है, जहाँ नहीं कहना नहीं कहता। ये आ जाए, बाबा भी आ जाए फिर बाबा के नाना भी आ जाए सो नहीं हो सकता। जो आप हैं उस लायक वो लोग नहीं। वो नालायक हैं। जो नालायक हैं उन को छोड़ देना चाहिए। उससे क्यों झगड़ा करना? नालायक लोगों से झगड़ा करने की कोई जरूरत नहीं। 'नसीब आपके फुटे जो नालायक से शादी कर ली।' ऐसा सोचना चाहिए और नसीब आपके फूटे जो नालायक आपके माँ-बाप हैं। जो नालायक हैं उनको काहे को जबरदस्ती सहजयोग में लाना और मेरी खोपड़ी पर लादना कि ' माँ, इसको ठीक करो क्योंकि वो मेरी बिवी है, क्योंकि वो मेरा बाप है, क्योंकि मेरा बाबा, मेरा दादा।' मेरा उनसे कोई रिश्ता नहीं बनता। गर वो सहजयोग में नहीं हैं। तो उनको आप नालायकों को बाहर ही रखिए| जो लायक लोग हैं उनसे रोज दोस्ती करिए, उनके मज़े में रहिए। आपको जरूरत क्या है? पर यही बात हम लोग नहीं समझ पाते कि दुनियादारी ये रिश्ते ऐसे चलते रहते हैं। इसमें कुछ रखा नहीं, हाँ गर आपकी जिनके साथ में संगति है वो आपके साथ उठ सकते हैं, आपके साथ चल सकते हैं, आपके साथ बन सके तो ठीक है। और नहीं तो ऐसे नालायक लोगों को कोई जरूरत नहीं सहजयोग में लाने की। मैं देखती हूँ कि बहत ही नालायक लोग सहजयोग में कभी-कभी इस रिश्ते से आ जाते हैं और मेरा बड़ा सिर दर्द हो जाता है। आपकी लियाकत थी इसलिए आप आये और आप सहजयोग को प्राप्त हुए। आपको आशीर्वाद मिला। आपने बहुत कुछ पा लिया और आगे आप पा सकते हैं। और जो भिखारी भी हैं और उसकी झोली में छेद भी है उनको और देने से क्या फायदा? लो करेला नीम चढ़ा। ऐसे लोगों से रिश्ता रखने की आपको कोई जरूरत नहीं है। उनसे कोई बात करने की जरूरत नहीं। मतलब रखने की जरूरत नहीं है। उनको बकने दीजिए। गर उनका दिमाग ठीक हुआ तो वो आएंगे और सहजयोग में उतरेंगे। और नहीं हुए तो आप अपना दिमाग क्यों खराब करते हैं? उससे कोई फायदा नहीं है। ऐसे लोगों के पत्थर के जैसे सर होते हैं। उससे कोई फायदा नहीं होता, वो देख ही नहीं सकते। | तो आज से हम लोगों को सोचना है कि हम एक व्यक्ति हैं, स्वयं| और इसे हमने प्राप्त किया है अपने- अपने पूर्वजन्म के कर्मों से। क्योंकि हमने बहुत पुण्य किये थे । इसलिए हम आज इस स्थान पर बैठे हुए हैं और इससे भी ऊँचे स्थान पर हम 19901009_Devi Puja_Delhi_H_TC.pdf-page7.txt बैठा सकते हैं और जा सकते हैं। तो अपने पीछे में बड़े-बड़े इस तरह के पत्थर लगा कर के आप समुद्र में मत कूदिए। आपको गर तैरना आता है तो मुक्त हो कर के तैरिए। उसका आनन्द उठाईये। और अपनी सारी शक्तियों से आप प्लावित होईए। आज मेरा अनन्त आशीर्वाद है कि आपके अन्दर की सुप्त सारी ही शक्तियाँ जागृत हों और धीरे-धीरे आप इसको महसूस करें। और उसकी जो अन्दर से प्रवाह की विशेष धारायें बहें उसके अन्दर आप आनन्द लूटें। यही मेरा आप सबको अनन्त आशीर्वाद है।